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गुरुवार, 6 अगस्त 2015

कविता-२२४ : "शायद, तुम ही हो..."

 जिन्दगी के मरुस्थल में
तन्हाइयो का घर
मुहब्बत की दीवार पर
वफा की उबड़ खाबड़ सी
मिट्टी को
यादो की खिड़की से
झाँकने वाले
शायद तुम ही हो...

उम्मीद के सागर में
भरोसे की लहरो के साथ
उठते संबंधो के
बबंडर में
चाहत के सीपी में
खारा सा अहसास
शायद तुम ही हो...

मन के भावो में
शब्दों की ओट में
कागज के हर कोने में
लेखनी के स्याह से
उकेरे हर दर्द की
आत्मा में
 शायद तुम ही हो...

और जब तुम ही ही हर
और
तो मेरे रहने की गुंजाईश
नहीं शेष...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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