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शनिवार, 29 अगस्त 2015

कविता-२४७ : "राखी का बंधन..."

मेरी देह से जुडे सीधे
हांथ की कलाई में
आज के दिन बंधता था एक
पीला धागा
जो खुलता न था तीन मजबूत
गांठो से....
बन जाता था एक निशान वहां
समय बढ़ गया
फिर ये दिवस आया
हाँथ भी है
वो निशान वाली जगह भी है

पर राखी नहीं...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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