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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

कविता-२३६ : "नारी की व्यथा..."




हे स्त्री ___
तेरे देह पर उभरे माँस
के टुकड़ो से
परे भी है तुम ___
तेरे अंतस में भी मौजूद
एक नारीत्व
जो पूजी जाती आदि काल से ही |
शास्त्रो / देवताओ और सभी
वेद पुराणों में
तुम्हारी महानता / पूज्यता
का उल्लेख__
पर...
तेरे देह से लिपटे मांस के टुकड़े
और मांस की गहराई में
ही चिपकी समाज की
नशीली आँखे |
सिर्फ नाम के , इंसान ने
दिया तो तुझे बहुत
किन्तु, इंसानियत से बाहर
जनती रही सदियो से
पेट में भारी बोझ लटकाये
स्तनों से दी ताकत /शक्ति
कोख ने उत्पत्ति
पर ,तेरे ये स्तन और कोख ही
तुझे दे गए
शोषण / उत्पीड़न / यातना
बलात्कार
कभी घर में तो कभी
सड़को पर
संस्कृति और सभ्यता की
परिचायक
मानव सृजन उदघोषिका
निर्मांण दायिनी
भोर के प्रथम आवेश से जुटी
गोबर से देहरी के अभिनन्दन
के साथ
संध्या तक डूबी रही पसीने में
रात ही थी आराम को तुझे
पर उस रात में भी
एक पुरुष का
अधिकार
लाल रेखा जो है तेरे माथे में
तेरे सूखे कंठो में
अमृत सी बूंद की परवाह
किसे कि सूख न जाये ये कंठ
पर तेरे देह के मॉस के टुकड़े
की गहराई
का सूखना मंजूर कहाँ ???
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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