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बुधवार, 24 जून 2015

कविता - १८१ : "संतान की अभिलाषा..."

भीतर के अंधेरों में

गोल गोल घेरो में...
तुम्हारा, सांस लेता नन्हा शरीर
आसपास....
मानव शरीर अंग, कोशिकाये..
उत्तक, रक्त वाहिकाये..
ही पडौसी रहे होंगे तुम्हारे...
मित्रता भी की होगी 
तुमने इन सबसे...
नौ मास का लम्बा समय
एक काल कोठरी में
भीतर बिताया है तुमने..
पता नहीं ??
बहार की बारिश की बूंदों की 
आवाज..
सुनाई देती थी तुम्हे या नहीं..
पर !
माँ की साँसों से, उसकी अथाह 
ममता से...प्यार से...
तुम्हे मिलता जरुर होगा..
एक अहसास बेहद सुखद..
जो तुम्हारी पलकों को 
कराता होगा इंतजार..
बाहर धरा पर आने का..
और देखने का..
अपनी जननी माँ का
मुस्कराता हुआ चेहरा...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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