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सोमवार, 11 मई 2015

कविता-१४० : "विशाल वृक्ष की छाँव में..."

मैंने अपने हांथो से...
रौपा था नन्हा सा 
मिट्टी की छाती में
जन्म हुआ...
तब एक नन्हा सा बालक
दिखता था...

कुछ समय बाद वह कुछ और
बड़ा हुआ
तब मेरे साथ मुस्कराने लगा वह
अब तो मेरे काँधे बराबर हो गया
वह और एक मित्र की तरह
बाते करने लगा मुझसे
कुछ और बड़ा हुआ तो
मुझसे बड़ो की तरह प्यार 
करने लगा..

अब तो वह बूढा हो चुका है
उसके अनुभव उम्र की छाँव में
मै घंटो आराम करता हूँ
सच बहुत शीतलता महसूस
करता हूँ मै..
उस विशाल वृक्ष की छाँव में...!!!

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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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