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शनिवार, 30 मई 2015

कविता-१५८ : "झूठ ठहरता कहाँ ???"


तू ठहर जरा...

ठहर.....



रुक ...सुन.....और देख
अपनी तीन उँगलियाँ
तेरी तरफ ही हैं 
उठाई थी जो एक ऊँगली मुझपर
ठहर सुनो अपने आस पास की
और आवाजो को भी
तेरे प्रतिरोध के स्वर से तेज से है
मेरे समर्थन का नाद...

ठहर तू अब ठहर ही जा
और देख मेरे साथ
आज भी वो हैं जिनके बीच
षड़यंत्र का जाल फेंका था 
मुझे उनसे पृथक करने...

ठहर और ठहर 
अभी तो और बाकि है 
न्याय की कहानी...
ठहरता क्यों नहीं अब ?
क्योकि जानता है तू
गलत है...
और जब गलत है तो
ठहरेगा कैसे???

सच की सपाट सतह पर
झूठ ठहरता है कहाँ...???

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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________


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