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रविवार, 31 मई 2015

कविता-१५९ : "आज़ाद हो तुम..."


हैं तो आजाद...
 हम और तुम भी..
मानसिक , शारीरिक  और
अधिकारिक रूप से...

 सोचने की ...करने की....
घूमने की फिरने की
कहने की सुनने की
नियमो के बुनने को...

लिखने की ..पढने की
किसी से भी लड़ने की...

संस्कारो को निभाने को
मिटने की मिटाने की...

सत्ता के जूनून की
सडको के खून की
बच्चे पर अत्याचार की
नारी के बलात्कार की.....

आजादी तो ही है...
बोलो है न आजादी....

बोलो क्यों मौन हो अब
आजाद हो तुम भी
कहने के लिये...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

शनिवार, 30 मई 2015

कविता-१५८ : "झूठ ठहरता कहाँ ???"


तू ठहर जरा...

ठहर.....



रुक ...सुन.....और देख
अपनी तीन उँगलियाँ
तेरी तरफ ही हैं 
उठाई थी जो एक ऊँगली मुझपर
ठहर सुनो अपने आस पास की
और आवाजो को भी
तेरे प्रतिरोध के स्वर से तेज से है
मेरे समर्थन का नाद...

ठहर तू अब ठहर ही जा
और देख मेरे साथ
आज भी वो हैं जिनके बीच
षड़यंत्र का जाल फेंका था 
मुझे उनसे पृथक करने...

ठहर और ठहर 
अभी तो और बाकि है 
न्याय की कहानी...
ठहरता क्यों नहीं अब ?
क्योकि जानता है तू
गलत है...
और जब गलत है तो
ठहरेगा कैसे???

सच की सपाट सतह पर
झूठ ठहरता है कहाँ...???

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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________


शुक्रवार, 29 मई 2015

कविता-१५७ : "जिंदा रहूँ में..."






तुम्हारी एक ना ने

सब ही तो खत्म कर दिया
अबशेष क्या अब 
शेष
कि जिन्दा रहूँ मैं....

भ्रम था लोगो कि अच्छा
लिखता हूँ मैं
कैसे कहूँ कि लिखवाती थी
तुम मुझसे सदा....

खूब हँसता था हंसाता था
अब वो मुस्कान कहाँ
शेष
कि जिन्दा रहूँ मैं...

कई राते जागकर काटी
दिन तुम्हारे इंतजार में
तुम नहीं तो फिर
ये दिन ये रात कहाँ
शेष
कि जिन्दा रहूँ मैं...

आज रवि भी नहीं निकला
निशा भी न आगोश भरती
पंछियो का नहीं अब
कलरव शेष 
कि जिन्दा रहूँ मै...

माँ बाप के नेत्र बूढ़े
ठहरे टूटी उम्मीद पर
यादें तुम्हारी सदा मुझको
जीने देती कहाँ...

तुम नहीं जो तो
मेरा खुद में क्या शेष 
कि जिन्दा रहूँ मैं...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

गुरुवार, 28 मई 2015

कविता-१५६ : "ये कैसा दर्द है..."

कह नहीं पा रहा जैसे सदियो से

दबे कुछ अनकहे आखर
हृदय के अंतिम कोने में
उन आखरों के भीतर
भी बहुत कुछ है 
जैसे इस सुर्ख धरा के
भीतर भी...
भले ये आखर निर्जीव हो
पर...
जीवटता बहुत है इनमे
कि कलम से लिखने
पर भी लिखते है तुम्हे ही
ये सजीवता ही है

पर, तुम्हे लिख देने से
मेरी अविरल यात्रा का पड़ाव
ठहरता कहाँ
क्योकि
मैं और मेरी कलम
नहीं लिख पाते मुझे
तुम्हारे साथ...

फिर
ये आखर और गर्म हो जाते है
लावे की तरह
और एक सीमा उपरांत
वो आखर 
उनका संवेग खो देता है
जीवटता
फिर शायद
कविता बन जाती है
सच
कैसा दर्द है ये...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

बुधवार, 27 मई 2015

कविता-१५५ : "नया प्रयोग कविता में..."

जहाँ तक काव्य को मैंने जाना है कविता एक प्रवाह के साथ चलती है। एक उचित क्रम और अभिव्यक्ति ही कविता को पूर्णता देते है।
इस कविता में एक नया प्रयोग है जिसे आप पढ़कर मेहसूस करेंगे।


इसे पहले आप ऊपर की पंक्ति से नीचे की पंक्ति तक पढ़े।
फिर नीचे की पंक्ति से ऊपर की पंक्ति तक पढ़े।





वो मर गया...

आत्महत्या की थी उसने

बेबफाई हुई थी उसके साथ

प्यार भी बेपनाह किया था

खूब आँखे मिलाता था
देखता था छिप छिप कर

थी बहुत,
उम्र के नाजुक दौर में
'मिलन की आस'
एक किशोर लड़के को...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

मंगलवार, 26 मई 2015

कविता-१५४ : "उनकी नजर से..."


भीड़ की धुन्ध में 

सब.. हाँ.. सब
कहाँ ,सबके लिये...

पर जो है जिनके लिए
वो ,कहाँ बच पाता
उनकी नजर से...

ये शब्द भी कहाँ बचने वाले
अब उनकी और
तुम्हारी नजर से.....
देख लेना...
सच...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

सोमवार, 25 मई 2015

कविता-१५३ : "आओ न..."

सुनो...

आ जाओ अब करीब मेरे
जल्दी ही...

कानो में घोल दो अपनी
आवाज का संगीत मीठा
और छूकर एक बार
दे दो वो अहसास
जिसे पाकर ही हुआ था मै
तुम्हारा.... 
सिर्फ तुम्हारा ही...

ये राते ये दिन ये समय 
पलक पांवड़े बिछाए
प्रतीक्षारत है 
आज भी....

आ जाओ अब ..
ये बेचेनियाँ , उदासिया
तनहाइयाँ
बदले बेबफाई में.
पहले इसके दिखा जाओ
वफा अपनी...

और आओगे भी न क्यों
आखिर कब तक ???

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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

रविवार, 24 मई 2015

कविता-१५२ : "विरह..."


ये कैसा विरह है तुमसे कि


विरह पश्चात
और नजदीक हूँ तुम्हारे
दैहिक नहीं किन्तु आत्मिक
सच...

पथराई आँखों की सुकड़ी
डिम्बियां अब नम है
तरलता भी आवश्यक है जीने हेतु
मान ही लिया मैंने...

दुनिया के छोर में तुम तो हो
पर मेरी ओर नहीं अब

ये तुम भी जान लो
और देख लो


मैं तो जी लूंगा लिखकर
कविताये
तुम पर ही...

पर सोचता हूँ तुम लौट न आओ
विरह की तपिश में
मिलन की बरसात लिए...

सुना है किसी से
मेरी कविताये खींच लेती है
प्रेम को...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

शनिवार, 23 मई 2015

कविता-१५१ : "हमारा स्वपन..."


तुम अपने घर में

मैं अपने घर में
तुम्हारी और मेरी तासीर
भी अलग...
घर और घर का रंग रोशन
भी अलग...

पर घर की दीवारे एक ही
जैसी है
जो खड़ी है वर्षो से
ये सोचकर की हमारे हिलने पर
ध्वस्त हो जायेगा ये मकान
और शेष
कुछ न बचेगा...

काश इन दीवारो से ही
लेकर सीख खड़े होते
हम भी एक चाह लिये तो
रहते सुरक्षित मकान 
के मानिंद
और न ध्वस्त हो पाता
हमारा स्वप्न...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

शुक्रवार, 22 मई 2015

कविता-१५० : "प्रिये...मेरे अरमान को..."

मेरे अरमान को तुम
हां तुम भी
कुचल दो मसल दो और
तोड़ मरोड़ दो.....

चड़ा दो बुलडोजर
जैसे रोंद देता है अनीतिगत या
नियम विरुद्ध दुकानों मकानों पर

मैं भी तो तुम्हारे नियमो नीतियों
के विरोध में ही हूँ
सदा से

दुनिया में रहते हो तो
निभालो अपना धर्म
तुम भी...

मुझे क्या .....

हमेशा की तरह
दे जाऊंगा एक और
कविता

पर वो नहीं होगी टूटी फूटी
मेरी तरह...
यकीनन...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
      

गुरुवार, 21 मई 2015

कविता-१४९ : "क्या बात हैं..."


मेरी हर बात पर
छोटी सी मुस्कराहट तुम्हारी
सच बहुत प्यारी
और गालो के बीच में
वो छुटकू सा डिंपल
अहा
क्या बात है.....

अचानक से आना तुम्हारा
गेसुओं का लहराना तुम्हारा
और इतने में
हवाओ का महक जाना
वाह्ह्ह्ह्
क्या बात है.....

आकर मुझे छूना
पलट कर शरमाना
फिर लौट कर न आना
सच ये इतराना
क्या बात है...............

तुम पर लिखना मेरा
चुपके से तेरा पढ़ना
पर कभी लाइक
कमेंट न करना
ओहो...
क्या बात है.....!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

बुधवार, 20 मई 2015

कविता-१४८ : "ये कैसा दर्द है..."


कह नहीं पा रहा जैसे सदियो से
दबे कुछ अनकहे आखर
हृदय के अंतिम कोने में
उन आखरों के भीतर
भी बहुत कुछ है...
जैसे इस सुर्ख धरा के
भीतर भी 
भले ये आखर निर्जीव हो
पर...

जीवटता बहुत है इनमे
कि कलम से लिखने
पर भी लिखते है तुम्हे ही
ये सजीवता ही है
पर तुम्हे लिख देने से
मेरी अविरल यात्रा का पड़ाव
ठहरता कहाँ...

क्योकि
मैं और मेरी कलम
नहीं लिख पाते मुझे
तुम्हारे साथ
फिर
ये आखर और गर्म हो जाते है
लावे की तरह...

और एक सीमा उपरांत
वो आखर 
उनका संवेग खो देता है
जीवटता
फिर शायद
कविता बन जाती है
सच
कैसा दर्द है ये... 
उफ़...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________




मंगलवार, 19 मई 2015

कविता : १४७ : 'गलतफहमी'

जिस दिन चला जाऊंगा मैं......

तुम्हारे आँख में आंसू न ठहर पायेगे
मेरा  चेहरा याद कर..
मेरी कई रातो से उनींदी आँखे
में गहरे इंतजार की सुर्ख
लाल पपड़ी
तुम्हारे पाँव के आसपास की जमी को
नर्म कर देगी
तुम्हारे ही अश्रुओं से
यकीनन......

तुम लिखोगे कई कविता मेरे
मिलने के बाद
फाड़ने के लिए ही
पर कविताओ से लिखे टुकड़े
कागज के
जमी पर न गिरेंगे ऊपर से नीचे
बल्कि वो ऊपर उठकर
तुम्हारे ह्रदय में प्रेम से एक
राग सा सुनाएंगे
पर फिर ह्रदय का प्रेम
शायद.....

नहीं कहूँगा अब 
तुम हर पल भागोगे
खिड़की पर
देखोगे आसमान  पेड पौधे
और पंछी....

खोये से रिश्तों की धरा पर
हर आहट लगेगी मेरी सी ही
और तुम्हारी आँखों
में लहरे उठेंगी फिर
मिलन की.....

पर कहाँ होगा शेष यह
क्योकि
जाग्रत हुए प्रेम को
वक्त की आंधी पीछे धकेल
चुकी होगी
और  तुम्हारा प्रेम
तब्दील हो जायेगा
स्मृतियो में ....!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

सोमवार, 18 मई 2015

कविता-१४६ : "तुम्हे दिल ने पुकारा है..."


हूँ तन्हा बहुत
कर लू यकीन अब तो

रूठने की त्याग निद्रा
उठ जाओ अब
और तन्मयता से कर लो
अंगीकार
हर अहसास को मेरे....

फासलों की दीवार खड़ी है
मानता हूँ पर
लांघने का हुनर पता है तुम्हे
जानता हूँ....

मेरे हर गीत के आखर
चाहते है छूना तुम्हे

अंतस का मरुस्थल पर
देकर नेह की बारिश
कर दो पुनः
हरियाली प्रेम की...

मन मयूर झूमने आतुर है
संग तुम्हारे अब
आओ न
दिल ने पुकारा है तुम्हे...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

रविवार, 17 मई 2015

कविता-१४५ : "सुहानी रात..."


चाँद चढ़  गया आसमान की
खूँटी पर
सूना कर गया फिर से
आँगन मेरा...

आँगन में लगे नीम के पेड़
क़ी एक टहनी से
लटका था जो हमेशा...

इतनी ऊँची तो सीढ़ी भी नहीं
कि उतार लाऊ
क्योकि ऐसे तो न आएगा
बुलाने पर
जानता हूँ....

इठलाने मनवाने और रूठने
का हुनर बख़ूब आता है
चाँद को...

मेरी गर्दन भी पीड़ा से भर उठी
निहारते निहारते

अब जाओ चाँद अब तो
जमीन पर

तुम्हारी जगह आकाश में
लटका देता हूँ
चेहरा उसका
ये सुहानी रात हो जायेगी
मस्तानी भी

सच्ची ...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________