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बुधवार, 22 अप्रैल 2015

कविता-१२० : "मेरे अंदर का बच्चा..."


लाल नीले पीले गुलाबी 
गुब्बारों को देख कर

चूमने लगता है नीला आसमान..


लम्बी सी पूंछ की बड़ी सी पतंग
को देखकर उड़ते हुए
मन में हिलोर उठती है आज भी..

सावन में झूले, चकरी और लट्टू
चाभी वाली रेल गाड़ी भी
अहा ! 
आज भी मन जुदा है इनसे..

किसी ठेले पर बर्फ का गोला
और बुढ़िया के बाल..
कुल्फी के गाड़ी की टन टन टन
हम जैसे बड़े ही नहीं हुए...

पहली बारिश में मिटटी की
सोंधी सोंधी सी खुशबू
वो कच्ची डगर , नहर...
और पेड़ पर रस्सी का झूले...
कैसे हम भूले...

इन सबको याद कर आज भी
लगता है हंसने. कूदने
और मुस्कराने...
मेरे अन्दर का बच्चा...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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