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बुधवार, 1 अप्रैल 2015

कविता : ९९ : "ओंस की बूंदें..."


जब ओस की बूँदें
पत्तों पर गिरती हैं ना
तब बन जाती हैं मोती...

और पत्ते का
हो जाता है सम्पूर्ण श्रृंगार...

और... कुछ बूँदें
सिर्फ बूँदें ही रह जाती हैं...

और... पत्ते सिर्फ जर्द पत्ते
लेकिन बूँद ओस की
मोती जैसी ही लगती है
निर्मल...

शीतल और पारदर्शी
मेरे तुम्हारे प्रेम की तरह...!!!

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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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