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शनिवार, 28 मार्च 2015

कविता-९५ : "तुम्हें आना ही होगा... राम..."

मर्यादा पुरषोत्तम
राम  !

तुम्हारी मर्यादा , नीति , न्याय
वचन और असीमित त्याग

जो कण कण में बिखराया था
तुमने
शेष कहाँ अब ?

तुम्हारी ही मूर्ति चोरी हो गई
तुम्हारे ही आलय से
कल ही पढ़ा था अख़बार में

सीता समान पत्नि की कर दी हत्या
दहेज़ के कारण

भरत तुल्य भाई को कुल्हाड़ी मारी
जमीन के बटवारे में

अब तो तुम्हारे नाम पर
राजनीति भी...

आ ही जाओ राम फिर से
देखो रावण आज
हर घर में ही बैठा है
अपनी हुंकार के साथ

तुम्हे अब आना ही होगा
हे राम...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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