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मंगलवार, 17 मार्च 2015

कविता-८४ : "लकड़ी का स्वाभिमान..."

एक शिल्पकार एक लकड़ी को
काट रहा था
उसे नापकर  छीलकर  तराश रहा था
तभी वह लकड़ी शिल्पकार के हाँथ
से खिसकी
जमीं पर गिरकर तेजी से सिसकी
वह रोते हुए शिल्पी से बोली
बड़े जोर लगाकर अपने बंद होंठो
को खोली...

हे शिल्पी... हे शिल्पी...
मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है
जो तू मेरे पीछे पड़ा है
अरे तू मुझे क्यों काटता है
क्यों ?
मेरे बदन से मेरी खाल को
खरोंचता है
और फिर मुझे कुछ बनाकर
बाज़ार में बेंचता है...

अरे हमारी तुमसे क्या बुराई है
जो पूरे काठशिल्पियो की गुस्सा
हम पर उतर आई है
इतना कह लकड़ी ने तेजी से
रोना शुरू किया...

इसको देख
उस शिल्पी का भर आया जिया
वह बोला हे लकड़ी
मेरी तुमसे कोई बुराई नहीं
परन्तु पैसो के कारण तुझे
काटना पड़ता है
पेट के कारण तुझे तराशना पड़ता है
और तुझे बेंचकर ही तो
मेरे बच्चो का पेट भरता है...

तब वह लकड़ी बोली
अगर मै तुम्हारे पेट के लिये कटती हूँ
तो यह बड़े सम्मान की बात है
खुद कटकर दूसरो का पेट भरूँ
इससे ऊँची हुई हमारी जात है
परंतु हमारा भी कुछ स्वाभिमान है
इस देश में कुछ तो  नाम है
अगर हो सके तो एक अहसान कर देना
इस समाज में कुछ तो नाम रख देना...

तब वह शिल्पी बोला-
कहो क्या अभिलाषा है तुम्हारी
मुझसे क्या आशा है तुम्हारी...

लकडी बोली-
तुम मुझे जितना छीलते हो उससे अधिक छीलो
जितना काटते थे
उससे अधिक काटना
परन्तु !
मुझे एक सुन्दर सी आकृति दे
कुछ अच्छा सा बनाना...

तब वह शिल्पी बोला-
ये अच्छी बात है
मै तुम्हारी इक्छा पूरी कराता हूँ
और तुम्हे एक सुन्दर सी कुर्सी बनाता हूँ...

तब वह लकड़ी बोली
ऐसा अनर्थ मत करना
कुर्सी बनाकर मेरी जाति को
कलंकित मत करना
अरे कुर्सी के कारण ही तो
आज देश में दंगे फसाद हो रहे हैं
और नेता तो इसके असीम भक्त हो रहे है
यह कुर्सी या तो किसी विद्यार्थी द्वारा
स्कूल या कॉलेज में फेंकी जायेगी
या लोकसभा या विधान सभा में
नेताओ द्वारा उछाली जायेगी
या इस पर वैठ कर कोई गद्दारी करेगा
तो फिर मेरा मन कैसे लगेगा
अतः तुम मुझे कुर्सी न बनाओ
कोई और आकार दे
किसी और प्रकार से सजाओ...

तब वह शिल्पी बोला-
चलो ये छोड़ देता हूँ
तुझे अलमारी या पेटी बनाता हूँ...

तब वह लकड़ी पहले सोची
फिर बोली
हे शिल्पी तुम मुझे अलमारी या पेटी
भी न बनाना
क्योकि आजकल लक्ष्मी का दीवाना है
सारा जमाना
और अगर कोई दो नंबर या काला बाजारी
का पैसा मुझमे रखेगा
तो मेरा मन मुझे देश द्रोही कहेगा...

तब वह शिल्पी बोला
चलो ये भी ठीक है
मै तुझे कुर्सी अलमारी और पेटी छोड़ देता हूँ
तुझे कोई दूसरा आकार देता हूँ
तुझे किसी खिलाडी की हॉकी या बेट
बनाता हूँ
अगर देश जीतेगा तो तेरा भी नाम होगा...

यह सुन लकड़ी की आत्मा फिर डोली
वह दुःख पूर्वक बोली
मुझे किसी खिलाडी के हाँथ नहीं जाना
यदि उस खिलाडी ने मैच फिक्सिंग की
और देश हारेगा
तो पूरा देश हमे फिर देश द्रोही कहेगा...

तब वह शिल्पी बोला
मै क्या करूँ
तुझे कैसे बनाना शुरू करूँ
मुझे कुछ समझ नहीं आता
तुम्ही बताओ
मुझे कोई राह दिखाओ...

तब वह लकड़ी बोली-
शिल्पकार की आँखे खोली
तुम मुझे न कुर्सी न पेटी
न हॉकी और न बेट बनाओ
मुझे बस एक सीधी सी छड़ी का आकार
दे किसी अंधे बुजुर्ग या बेसहारे
के हाँथ में थमाओ...

किसी अंधे बुजुर्ग या बेसहारे के
हाँथ का सहारा बनूँगी
तो अपने व अपनी जाति को जिन्दगी
भर धन्य समझूंगी...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’________

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