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बुधवार, 11 मार्च 2015

कविता-७८ : "हम और तुम..."

आकाश की ऊँची जमीं नहीं
धरा की सच्चाई पर रहते हैं हम और तुम
 मै रहता हूँ...
समुन्दर के खारे पानी में
और तुम ..
समुन्दर किनारे

शंख ए सीप और नम रेत के कणों में
एक लहर के आते ही
एक ही हो जाते हैं हम और तुम...

मै रहता हूँ
दूर दराज गाँवों में बसे
उस खेत की काली मिट्टी में
और तुम...
उस मिट्टी की भीनी खुशबु में...

मै रहता हूँ
बगिया के मदमस्त प्रसूनो में
और तुम...
फूलो के मध्य पराग दानो में
मेरे संग महकाती हो
जीवन बगिया हमारी...

मै बदले मौसम की अँगड़ाई में
तुम प्रकृति संग कोयल गीतों में चहकती हो
 मै रहता हूँ
कलकल बहता नदियों के पानी में
और तुम...
नीड अमूर्त चट्टानों में...

मै रहता हूँ फुलबारी में
तुम मयूर के पंखो में....

मै नर्मदा के पैरो में बहता
बहती तुम यमुना के माथे पर..

मै रहता हूँ
कस्बे के उस पुराने शिव मंदिर की
दीवारों में
और तुम....
उसके बाहर लटके ध्वनि शंख में
जिसके बजते ही
तुम्हारा मधुर संवेग से भरा स्वर
मुझे प्रणय से भर देता है
तुम्हारे संग
और एक ही हो जाते

हम और तुम...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’________

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