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रविवार, 15 फ़रवरी 2015

कविता-५१ : "अहसास... गूंगे... बहरे...!!!"

तेरे ह्रदय की पीर
गर सुन पाता
तो पीर फिर
कहाँ रह जाती...?

नहीं सुन पाता हूँ
शव्द पीड़ा के
क्योकि...

तुम्हारी मुहब्बत
है गूंगी
और... 
मेरे अहसास
शायद..... बहरे...!!!
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अजीब हूँ पर जीव हूँ
निर्जीव नहीं..
वर्ना कहाँ है
शेष
जीवंतता
जिन्दा दिलो में

भी...!!!
_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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