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रविवार, 1 फ़रवरी 2015

कविता-३६ : "जब भी हमारी बात चलेगी..."

हकीकत में
मुरझा जाओगे तुम
सिवा यादो के कुछ न
पाओगे तुम..
जब भी हमारी बात चलेगी 

देखोगे झांककर नितांत गहराई
में अतीत की
अतीत की धरा पर
वो रेत के मानिंद सुर्ख मिट्टी
होगी अभी भी
जहाँ लिखा होगा नाम मेरा
पर साथ में लिखा तुम्हारा नाम
ढूँढ न पाओगे तुम..
जब भी हमारी बात चलेगी 

स्मृतियों की गुल्लक में
खन खनाते हुए यादो के सिक्के
आज भी है
पर तुम अपने नाम का सिक्का
कभी न पाओगे तुम
जब भी हमारी बात चलेगी 

भरोसा न हो तो आ जाओ
और रख लो अपनी नर्म गदेली
मेरे सीने पर
साँसों के गर्म ज्वार में
धुन अपनी न पाओगे तुम
जब भी कभी हमारी बात चलेगी 

मै हूँ और रहूँगा भी
यदा कदा
पर जो भी है शेष
अपने अवशेष ही पाओगे तुम

जब भी कभी हमारी बात चलेगी 
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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