Powered By Blogger

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

कविता-३३ : "एकदम नये प्रयोग के साथ एक नवीन रचना..."

हा... हा... हा...

सोचते तो होंगे ,तुम
कि जाग कर ,रो रहा होगा
हा... हा... हा...

पहले भी गलत थे
और अब भी..
हा... हा... हा...

मैं जाग रहा हूँ इस
मध्य रात्रि में
सच है
पर ,नहीं तुम्हारे लिए....
हा... हा... हा...

सुबह आकर मेरा चेहरा
देख लेना
आँखों से गीत ही टपकेगा
टूट जायेगा भ्रम
तुम्हारा...
हा... हा... हा...
-----------------------------------------------------------------------

_________ आपका अपना ‘अखिल जैन’______________

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें