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रविवार, 11 जनवरी 2015

कविता-११ : 'रोटी'

रोटी एक
तेरे रूप अनेक...

काँसे की कोपर पर
आटे की लोई को
खुरदरे हाँथो से
दबा दबाकर
मिट्टी के चूल्हे में
सेंकना / पकाना
और दूसरे पहर के लिये
तौलिये या किसी पुराने कटे फटे कपड़ो
में बांधकर
अचार/ नमक के साथ खाई जाती है
तब शायद
रोटी भूख बन जाती है...

रोटी....
किसी बंगले या महल के अन्दर
आधुनिक चूल्हे या गैस पर
मशीन से गोल गोल बेलकर
ऊपर से शुद्ध घी / मक्खन का लेप लगाकर
नाना प्रकार की साग सब्जियों के साथ खाई
जाती है..
तब शायद !
रोटी शौक बन जाती है..

रोटी...
रोटी जरुरत हर इन्सान की
भूखे गहरे पेट की
जब नहीं मिल पाती रोटी
तब अभाव रोटी के
गहरी भूख के ज्वार से
जीवन लीला समाप्त हो जाती है
तब शायद !
रोटी मौत बन जाती है...

रोटी...
रोटी बीमार / लाचार / भूखे
के खाली पेट में जाती है
तब भूख की वेदना
तृप्ती का अहसास दे जाती है
तब शायद !
रोटी जिंदगी बन जाती है..

रोटी ..
वैसे तो जीवन है
जीवन का उद्देश्य है
पर बाल्य अवस्था में
इसका महत्त्व विशेष है
बच्चो की भूख के निवाला के साथ
जब यह उनके छोटे नरम नरम हांथो में समां जाती है
तब शायद !
ये रोटी उनका चंदा मामा बन जाती है...

रोटी..
सुहागन के सुहाग में
स्नेह और अनुराग में
संस्कृति धर्म के पालन में
करवा चौथ पर..
निष्ठां और विश्वास से
पति द्वारा पत्नि को खिलाई जाती है
तब शायद !
रोटी रीत/ प्रीत बन जाती है..

रोटी...
सदियाँ बदल गईं
वक्त बदल गया
व्यक्ति की सोच / तरीके बदल गये
पर...,

रोटी तू गोल थी
गोल है
और गोल ही रहेगी....!!!
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....... आपका अपना... ‘अखिल जैन’

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